राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या है?

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या है?

सह सरकार्यवाह श्री आलोक कुमार जी का संबोधन : रांची महानगर 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या है? 

यह कार्यप्रणाली (Methodology) है, और कुछ नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम का जो संगठन है वह करता क्या है? वह व्यक्ति निर्माण का काम करता है। क्योंकि समाज के आचरण में कई प्रकार का परिवर्तन आज भी हम चाहते हैं। हमको भेद मुक्त समाज चाहिए, समता युक्त समाज चाहिए, शोषण मुक्त समाज चाहिए। समाज से स्वार्थ भी जाना चाहिए। लेकिन ये जाना चाहिए केवल ऐसा कहने से नहीं होगा। समाज का आचरण उदाहरणों की उपस्थिति में बदलता है। हमारे यहाँ आदर्श हैं, महापुरुषों की कोई कमी नहीं है। देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले इस भूमि में आदिकाल से इस क्षण तक बहुत लोग हैं। लेकिन अपने सामान्य समाज की प्रवृत्ति क्या है? वह उनकी जयंती, पुण्यतिथि मनाता है। उनकी पूजा जरूर करेगा, उनके जैसा गलती से भी नहीं बनेगा। छत्रपति शिवाजी महाराज फिर से होने चाहिए लेकिन मेरे घर में नहीं होने चाहिए, दूसरे के घर में होना चाहिए। कुछ वर्ष पहले रीडर्स डाइजेस्ट में एक अंग्रेजी वाक्य पढ़ा था, उसमें ये कहा था कि The ideals are like stars, which we never reach. आदर्श दूर ही रहते हैं। उनकी पूजा होती है, उनका अनुकरण नहीं होता है। आगे का वाक्य है, But we can plot our chart according to them. उसमें ploting the chart का काम नहीं होता। वह किसके भरोसे होता है? अपने निकट जो लोग हैं, उनके आचरण का प्रभाव हमारे आचरण पर होता है। अगर देश के प्रत्येक गाँव में, प्रत्येक गली, मोहल्ले में स्वतंत्र भारत के आज के नागरिक का जैसा आचरण होना चाहिए वैसा आचरण करने वाले हर परिस्थिति में उसको न छोड़ने वाले, उस पर अड़े रहने वाले, चारित्र्यसम्पन्न, सम्पूर्ण समाज से अपना आत्मीय संपर्क रखने वाले लोग खड़े हो जाएंगे, तो उस वातावरण में समाज का आचरण बदलेगा।


संघ की योजना प्रत्येक गाँव में, प्रत्येक गली में अच्छे स्वयंसेवक खड़े करना है। अच्छे स्वयंसेवक का मतलब है जिसका अपना चरित्र विश्वासास्पद है, शुद्ध है। जो सम्पूर्ण समाज को, देश को अपना मानकर काम करता है। किसी को भेदभाव से, शत्रुता के भाव से नहीं देखता और इसके कारण जिसने समाज का स्नेह और विश्वास अर्जित किया है। ऐसा आचरण करने वाले लोगों की टोली प्रत्येक गाँव में, प्रत्येक मोहल्ले में खड़ी हो। यह योजना 1925 में संघ के रूप में प्रारंभ हुई। संघ बस इतना ही है इससे ज्यादा कुछ नहीं।


डॉ. हेडगेवार को पूछा गया कि आप क्या करेंगे? 1928 में जब पहली बार संघ का पथसंचलन नागपुर में हुआ, उसमें ज्यादा लोग नहीं थे। 21-22 ऐसी संख्या थी। लेकिन अपने समाज में उस समय 21-22 लोग भी एक दिशा में कदम मिलाकर चल रहे हों, यह दृश्य बड़ा दुर्लभथा। इसलिए लोग प्रभावित हो गए और डॉ. हेडगेवार के पास गए, क्योंकि उनको पता था कि ये क्रांतिकारक मनोवृति के आदमी हैं। इन्होंने अपना जीवन देश के लिए समर्पित किया है। तो उनको लगा कि इनकी जरूर कोई दूर की रूपरेखा (Design) है, दूर की गोटी कुछ खेल रहे हैं। तो बड़े विश्वास में लेकर पूछा, डॉक्टर साहब अब अपने पचास लोग हो गए, अब आप आगे क्या करेंगे? तो डॉ. साहब ने कहा कि पचास के बाद पाँच सौ करेंगे। पाँच सौ के बाद फिर, पाँच हजार करेंगे। पाँच हजार होने के बाद? अभी हुए कहाँ? नहीं-नहीं, मान लो हो गए तो क्या करेंगे? पचास हजार करेंगे। ऐसा बढ़ते-बढ़ते पाँच करोड़ तक पहुँचे, तब उन्होनें ऊबकर पूछा कि आप इनका करेंगे क्या? तो डॉक्टर साहब ने कहा कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज को हमको संगठित करना है। उसमें अपना अलग संगठन नहीं खड़ा करना है। सबको संगठित करना है। यह छोड़कर हमको दूसरा कोई काम नहीं करना है। क्योंकि ऐसा समाज खड़ा होने के बाद जो होना चाहिए वह अपने आप होगा। उसके लिए 'और' कुछ नहीं करना पड़ेगा।

हिन्दू क्यों ?

सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस समय स्थापना हुई। यह हिन्दू क्यों आया? ये बहुत बड़ा प्रश्न समाज से आता है, आज भी आता है। तो संघ की स्थापना के मूल में जो विचार है उसके तीन हिस्से हैं। एक मैंने बताया, समाज का परिवर्तन होने से सारी व्यवस्थाएँ यशस्वी होती हैं। व्यवस्था अच्छी है, व्यक्ति खराब है तो व्यवस्था बिगड़ती है। व्यक्ति अच्छे हैं, व्यवस्था खराब है तो व्यक्ति को बिगाड़ देती है। दोनों को अच्छा होना चाहिए और प्रारंभ समाज से होता है क्योंकि व्यवस्थाओं को बदलने वाले व्यवस्था के लोग कभी नहीं हो सकते, वे तो व्यवस्था में हैं। वे बदलेंगे तो उन पर ही खतरा है। समाज का दबाव व्यवस्थाओं को बदलता है इसलिए हर परिवर्तन के पीछे कोई न कोई समाज जागृति है, दुनिया में कहीं भी जाकर देख लीजिए। लेकिन समाज का आचरण व्यक्ति-निर्माण से बदलेगा।

अब, अपने इस समाज को संगठित करने में एक मुख्य कठिनाई है, कि यह समाज एक भाषा बोलने वाला समाज नहीं है। अलग-अलग इसकी भाषाएँ हैं। एक की भाषा दूसरे को समझ में नहीं आती, ऐसी स्थिति भी है। एक हिन्दी की ही बोलियाँ इतनी हैं। पहली बार जब मुझे बिहार भेजा गया, तो प्रवास किया, सब ब्लॉक्स तक जाकर आया। तो एक बार मुजफ्फरपुर पहुँचा। पूर्णिया की तरफ से लंबा प्रवास करके आया था। उस समय की बसें वगैरह, उस समय के रास्तों के कारण सुबह चला तो शाम को पहुँचा। थक गया था। कपड़ों पर धूल भी बहुत थी। तो जो हमारे वहाँ प्रचारक थे उन्होंने कहा कि आपका पायजामा खींच लूँ क्या? तो मैं डर गया, पहली बार पहुँचा हूँ, परिचय भी नहीं है और ये ऐसी बात कर रहा है। क्या हुआ, मेरी गलती क्या हुई? बाद में ध्यान में आया कि धोने को फींचना कहते हैं और बात करते-करते फींच का खींच हो जाता है। अब हिन्दी उन्हें भी आती है, मुझे भी आती है।

भाषाओं की इतनी विविधता, देवी-देवताओं का क्या कहें? 33 करोड़ तो पहले से ही हैं। नए-नए आते रहते हैं। साईं बाबा पहले कहाँ थे, पहले नहीं थे। भगवान को न मानने वाले भी भारत के सम्प्रदाय हैं। कितनी विविधता है। दर्शन में परस्पर विरोध भी है। इस समाज को जोड़ें कैसे? खान-पान, रीति-रिवाज अलग-अलग हैं। कहीं पर केवल रोटी खाते हैं तो कहीं पर केवल चावल खाते हैं। कहीं पर अमुक प्रकार की सब्जी, कहीं पर मिर्ची ज्यादा, कहीं पर मीठा ज्यादा। किसी भी बात में एक-जैसी समानता भारत में कहीं नहीं है। और दुर्भाग्य से इनमें से कुछ विविधताओं को लेकर पहले हमने अपने भेद बनाए हैं। एक को दूसरे से अलग किया। ऊँच-नीच भी किया और बाद में विदेशियों ने भी उसका लाभ लिया। उन दरारों को और चौड़ा किया। तो कैसे जोड़ा जाए? जोड़ने वाला कोई सूत्र है क्या, ऐसा कोई विचार है जो सब प्रकार की उपासनाओं को, पूजाओं को, देवताओं को मानता है; सबको सत्य कहता है; जो किसी एक भाषा पर आग्रह नहीं रखता, सब भाषाओं का जिसमें स्वीकार है; खान-पान, रहन-सहन की विविधता का सब प्रकार का जिसमें स्वीकार है?



विविध विचारों में साम्य

सौभाग्य से यह हमारे देश का परम्परा से चलता आया हुआ विचार है। जब मैं विचार कहता हूँ, तब मैं मूल्यों की बात करता हूँ। विचार के मूल्य होते हैं, जिसमें से विचार निकलता है। उसके आधार पर कुछ formulation होता है। वह अलग-अलग होता है। परस्पर विरोधी भी हो सकता है। लेकिन हमारे देश में जितने सारे विचार हैं जो हमारे देश की भूमि से निकले हैं। उनको देखेंगे तो आपको ध्यान में आएगा कि जो बीच में दिखने वाला है वह सब अलग-अलग है, परस्पर विरोधी भी है। लेकिन जहाँ से शुरु हुआ वह 'प्रस्थान बिन्दु' और जहाँ उसकी परिणति होती है वह 'प्रत्यक्ष उपदेश', इसमें कोई फर्क नहीं है। प्रस्थान बिन्दु एक है कि मूल में एक है। विद्वान लोग उसको अलग-अलग नजर से देखते हैं इसलिए उसका अलग-अलग वर्णन करते हैं, लेकिन वह एक ही है। एक ही वस्तु का अलग-अलग वर्णन है। 'एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'।


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